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॥महामहनीय! मेधाविन्! त्वदीयं स्वागतं कुर्मः॥

Namaste. I, Dr. Srimanta Bhadra, Head & Assistant Professor, PG Department of Sanskrit, Raja Narendra Lal Khan Women's College (Autonomous), will share various study materials here related to Sanskrit language, literature and scripture especially Sanskrit Grammar. Let me know your feedback in the comments. It will encourage me and do not forget to comment your favourite topics which you want to read in future.
अवनितलं पुनरवतीर्णा स्यात् संस्कृतगङ्गाधारा
Thanks & Regards
Dr. Srimanta Bhadra

Sunday, May 17, 2020

नीतिशतकम् | श्लोकसंख्या – 18 | अम्भोजिनीवननिवासविलासमेव | श्लोकव्याख्या | Sanskrit Kutir | Sanskrit Shlok


अम्भोजिनीवननिवासविलासमेव
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः॥१८॥

भूमिका– श्लोकोऽयं कविना भर्तृहरिणा विरचिते नीतिशतकाख्ये ग्रन्थे विद्यते।
अन्वयार्थः– नितराम् = अत्यन्तं, कुपितः = क्रुद्धः, विधाता = ब्रह्मा, हंसस्य = मरालस्य, अम्भोजिनीवननिवासविलासम् एव = पद्मकानने क्रीडाजनितमानन्दम् एव, हन्ति = हन्तुं समर्थो भवति, असौ = विधाता, अस्य = हंसस्य, दुग्धजलभेदविधौ = नीरक्षीरविवेके, प्रसिद्धां = बहुश्रुतां, वैदग्ध्यकीर्तिं = निपुणताम्, अपहर्तुं = विनाशयितुं, तु न समर्थः = न शक्तः इति अन्वयार्थः।
भावार्थः– प्रस्तुतश्लोकेन गुणस्य अविनश्वरत्वं गायति कविः। जन्ममृत्योः कारणं विधाता लीलाकमलवने सञ्चरन्तं हंसं निहन्तुं समर्थः, परन्तु नीरात् क्षीरस्य पृथकीकरणरूपं हंसगुणं विनाशयितुं न समर्थः। यतः गुणः अविनश्वरः। गुणस्य माहात्म्यकीर्तनं संस्कृतसाहित्ये भूयशः दृश्यते – गुणाः पूजास्थानं गुणिषु इति।  नीतिशास्त्रे यथा – गुणहीनाः न शोभन्ते निर्गन्धाः इव किंशुकाः इति। व्यक्तेः विनाशे अपि अविनश्वरः गुणः जीवति –कीर्तिर्यस्य स जीवति इति। काव्यजनितस्य वैदग्ध्यस्य अधिकारिणं कविं विधाता हन्तुं समर्थः, न पुनः कवेः कवित्वमिति भावः।
व्याकरणविमर्शः–
१.   अम्भोजिनीवननिवासविलासम्– अम्भोजिनीनां वनम् इति अम्भोजिनीवनम् इति षष्ठीतत्पुरुषः, तत्र निवासः अम्भोजिनीवननिवासः इति सप्तमीतत्पुरुषः, अम्भोजिनीवननिवासजनितः विलासः इति अम्भोजिनीवननिवासविलासः, तम् अम्भोजिनीवननिवासविलासम् इति मध्यपदलोपी कर्मधारयः।
२.  दुग्धजलभेदविधौ– दुग्धं च जलं च दुग्धजले इति द्वन्द्वसमासः, तयोः भेदविधिः इति षष्ठीतत्पुरुषः, तस्मिन् दुग्धजलभेदविधौ।
छन्दः अलङ्कारश्च– वसन्ततिलकावृत्तम्। निदर्शनालङ्कारः।

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বাংলালিপি–


অম্ভোজিনীবননিবাসবিলাসমেব
হংসস্য হন্তি নিতরাং কুপিতো বিধাতা।
ন ত্বস্য দুগ্ধজলভেদবিধৌ প্রসিদ্ধাং
বৈদগ্ধ্যকীর্তিমপহর্তুমসৌ সমর্থঃ॥১৮॥
ভূমিকা শ্লোকোয়ং কবিনা ভর্তৃহরিণা বিরচিতে নীতিশতকাখ্যে গ্রন্থে বিদ্যতে।
অন্বয়ার্থঃ নিতরাম্ = অত্যন্তং, কুপিতঃ = ক্রুদ্ধঃ, বিধাতা = ব্রহ্মা, হংসস্য = মরালস্য, অম্ভোজিনীবননিবাসবিলাসম্ এব = পদ্মকাননে ক্রীডাজনিতমানন্দম্ এব, হন্তি = হন্তুং সমর্থো ভবতি, অসৌ = বিধাতা, অস্য = হংসস্য, দুগ্ধজলভেদবিধৌ = নীরক্ষীরবিবেকে, প্রসিদ্ধাং = বহুশ্রুতাং, বৈদগ্ধ্যকীর্তিং = নিপুণতাম্, অপহর্তুং = বিনাশয়িতুং, তু ন সমর্থঃ = ন শক্তঃ ইতি অন্বয়ার্থঃ।
ভাবার্থঃ প্রস্তুতশ্লোকেন গুণস্য অবিনশ্বরত্বং গায়তি কবিঃ। জন্মমৃত্যোঃ কারণং বিধাতা লীলাকমলবনে সঞ্চরন্তং হংসং নিহন্তুং সমর্থঃ, পরন্তু নীরাৎ ক্ষীরস্য পৃথকীকরণরূপং হংসগুণং বিনাশয়িতুং ন সমর্থঃ। যতঃ গুণঃ অবিনশ্বরঃ। গুণস্য মাহাত্ম্যকীর্তনং সংস্কৃতসাহিত্যে ভূয়শঃ দৃশ্যতে গুণাঃ পূজাস্থানং গুণিষু ইতি। নীতিশাস্ত্রে যথা গুণহীনাঃ ন শোভন্তে নির্গন্ধাঃ ইব কিংশুকাঃ ইতি। ব্যক্তেঃ বিনাশে অপি অবিনশ্বরঃ গুণঃ জীবতি কীর্তির্যস্য স জীবতি ইতি। কাব্যজনিতস্য বৈদগ্ধ্যস্য অধিকারিণং কবিং বিধাতা হন্তুং সমর্থঃ, ন পুনঃ কবেঃ কবিত্বমিতি ভাবঃ।
ব্যাকরণবিমর্শঃ
১. অম্ভোজিনীবননিবাসবিলাসম্ অম্ভোজিনীনাং বনম্ ইতি অম্ভোজিনীবনম্ ইতি ষষ্ঠীতৎপুরুষঃ, তত্র নিবাসঃ অম্ভোজিনীবননিবাসঃ ইতি সপ্তমীতৎপুরুষঃ, অম্ভোজিনীবননিবাসজনিতঃ বিলাসঃ ইতি অম্ভোজিনীবননিবাসবিলাসঃ, তম্ অম্ভোজিনীবননিবাসবিলাসম্ ইতি মধ্যপদলোপী কর্মধারয়ঃ।
২. দুগ্ধজলভেদবিধৌ দুগ্ধং চ জলং চ দুগ্ধজলে ইতি দ্বন্দ্বসমাসঃ, তয়োঃ ভেদবিধিঃ ইতি ষষ্ঠীতৎপুরুষঃ, তস্মিন্ দুগ্ধজলভেদবিধৌ।

ছন্দঃ অলঙ্কারশ্চ বসন্ততিলকাবৃত্তম্। নিদর্শনালঙ্কারঃ।



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